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21.माई मोरी याद करत होइहें हो

अर्क के बेरी, माई मोरी, याद करते होइहें हो। अखियाँ से उनका लोरवा, झर-झर बहत होइहें हो। बचपन से रहें लगनी, माँ से हम दूर हो। जेहि भईनी सयान त, हो गईनी मजबूर हो। चाह के भी ना जा पवनी, अईसन भारी व्रत में, इंहवें से फ़ोटो डलनी, माई के याद करत में। अपना मनवा के बातवां केहूंओ से नाही कहत होइहें हो। हमरा नाही जाएला के, पिड़वा सहत होइहें हो। अर्क के बेरी, माई मोरी, याद करते होइहें हो। अखियाँ से उनका लोरवा, झर-झर बहत होइहें हो।
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20. ख़ुद को भुला चुकी है

रात को 11 बजने वाले हैं, सबको खाना पड़ोस कर खिला चुकी है, उसे यह भी याद नहीं कि उसने खाया कि नहीं, मेरी माँ, ख़ुद को भुला चुकी है। इतना भी अपनों से प्यार कौन करता है। हमारी दुःख - तक्लीफ़ सब सुनती है। और जब स्वयं की बारी आती है तो, तो इतना भी मौन कौन रहता है। उसकी दर्द सुनकर हमें दर्द न हो जाए  इसलिए वह कुछ बतलाती नहीं। भले मैं मातृ-प्रेम पर किताबें क्यों ना लिख दूं, लेकिन मुझसे ज़्यादा वो प्रेम करती है  बस फ़र्क इतना है कि वो बतलाती नहीं।

19. माँ, मैं आ नहीं पाया

तुने बनाई थी पकवान जो मेरे लिए, माँ उसे मैं खा नहीं पाया। किया था वादा तुझसे मिलने का, माँ मगर मैं आ नहीं पाया। तेरा मुझपर नाराज़ होना, सही है माँ, लेकिन मेरी समस्याओं को भी भली-भांति जानती है, मैं कैसे जुझ रहा हूँ दिन - रात, यह तू भी मानती है। गर यूं तू मुझसे नाराज़ रहेगी, तो कैसे मैं जी पाऊंगा माँ। जो दर्द को घुटकर पी रहा हूँ, आखिर वह कैसे पपी पाऊंगा माँ। तू मेरा प्रोत्साहन बढ़ा ! और देख, मैं क्या करता हूँ। कैसे अपनी समस्याओं से, मैं डट कर लड़ता हूँ।

18

माँ जब तुझे छोड़, मैं शहर आया, मेरी सारी घमंड चकनाचूर हो गई। गुस्सा जो सदा मेरे नाक पर थी, ना‌ जाने कितने कोश दूर हो गई। जो कभी अपने हाथों से खाना नहीं खाता था, आज सारा काम स्वयं करता हूँ माँ। छोटी-छोटी परेशानियों के लिए हिकायत करता था, आज बड़े-बड़े मुसीबतों का सामना करता हूँ माँ। जब दर्द मुझे दुनिया से मिलती हैं, तो अकेले बंद कमरे में रो लेता हूँ माँ। वैसे तेरी लोरी बिना नींद नहीं आती मुझे, मगर क्या करूं? सो लेता हूँ माँ। बहुत जल्द मेरी पढ़ाई पूर्ण होगी, उसके बाद तेरे पास आऊंगा माँ मुझे पता है, तू नाराज़ हो होगी मगर मैं तुझे प्यार से समझाऊंगा माँ। तेरे समीप बैठ, मैं तेरे हाथों से खाउँगा माँ उसके बाद तुझे छोड़, कभी मैं शहर नहीं जाउँगा माँ ©नीरज यादव ( मोतीहारी, बिहार)

Neha

 *माँ वो बचपन याद आती है* माँ वो बचपन याद आती है, जब मैं धूल-मिट्टी से खेलती थी। मेरे कपड़े गंदे हो जाते थे, फिर भी,तू मुझे गोद में उठाती थी। माँ वो बचपन याद आती है, जब बरसात में मौज़-मस्ती करती थी। अपनी सहेलियों के साथ घूमती थी, और थक -हार,फिर तेरे गोद में सो जाती थी। माँ वो बचपन याद आती है, जब तू मूझे गुड़ियाँ रानी बुलाती थी। स्कूल जाते वक्त्त मुझे तू, अपने हाथों से खिलाती थी। माँ वो बचपन याद आती है, जब पापा के कंधों पर घूमती थी । उनके लाये हुए खिलौनों से , ख़ूब खेलती और झूमती थी। माँ वो बचपन याद आती है, जब तूने मुझे सही बोल सिखाई थी । और इस दुनिया का असली रूप, तूने ही मुझे दिखाई थी। *©नेहा कुमारी (नयकाटोला, भोपतपुर, मोतिहारी: बिहार)*

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तेरे संग दो पल रहने को तरसता हूँ माँ अकेला पाकर मैं रात भर बरसता हूँ माँ तेरी आँखों से भी आसु बहते होंगे तेरी हर दर्द को बयां करते होंगे नींद नही आती मुझको अब तेरे बिन गुज़ारना मुश्किल हो गया है एक - एक दिन एक तू ही है जिससे अपना दर्द बांट लेता हूँ मुझे पता है आज भी तेरा लाड़ला बेटा हूँ  मुझे ख़ुद भी पता नहीं कहा हूँ माँ पर अबकी छुट्टी में आ रहा हूँ माँ